नारी ही महकाती है
सबके गुलशन की डाली को
नारी के आने से मिलती
भाव तृप्ति घर की क्यारी को.
नारी अपना स्वत्व मिटाकरअपनों का जीवन संवारती
खुद सहती है दुःख अनेकों
सुख अपनों को परोसती.
वह बचपन में पिता की,जवानी में पति की,
दीन बुढ़ापे में बच्चों की,सहती है अधीनता|
अपना जीवन नहीं है अपना
सदा ही वह पराधीन है रहती
फिर भी खुश हो करती सेवा
कभी किसे से कुछ ना कहती
नारी धरती, नारी अम्बर
नारी है जीवन का संबल
इसके बिन क्या घर समाज है ...
नारी जीवन पर बड़ी सटीक और ह्रदय को छू लेने वाली रचना है.......श्रीमती अनिता जी !! दो पंक्तियां खिदमत में पेश हें :
ReplyDeleteमैं पटरियों की तरह ज़मीं पर पड़ा रहा,
सीने से ग़म गुज़रते रहे रेल की तरह !