Wednesday 8 June 2011

                                                                   

हे! पथिक सुनो!
तुम सच जा रहे हो
मेरे शहर, मेरे गांव?
तो सुनो! तुम
जब जाओगे तुम मेरे शहर
वहां तुम्हें कल-कल करती
शांत भाव में लहराती बहती
जीवनदायिनी गंगा नदी मिलेगी।
उससे मेरा पता पूछना
तब तुम मेरे घर हो आना
वहीं कहीं मेरा घर होगा
उसके आंगन में होकर आना
मेरा बचपन वहीं छिपा है,
जहाँ खेला करती थी मै
गुड्डे गुडिया का खेल सलोना,
पथिक जरा कुछ संग में लाना।
मेरे घर आंगन की माटी
वहीं कही मात पिता की यादें
अपनों की कुछ होगी फरियादें
सब को तुम मिलकर आना
गंगा की पावन धारा से
मेरे बचपन की बातें करना
वहीं खड़ा इक मंदिर होगा
विश्वनाथ जी होकर आना
वहां पथिक तुम शीश नवाना
सभी कामना पूरी होंगी
बस भावों की भेंट चढ़ाना।
वरूणावत पर्वत समीप है
उसकी धूलि को जरा
तुम अपने माथे से लगाना,
मेरा बचपन यहीं है गुजरा
जरा सहज होकर तुम जाना
कुछ सपनों को पंख लगे थे
कुछ माटी में दफन हुए हैं
उनकी दुखती रग सहलाना
कुछ निर्मल कुछ पावस होकर
मेरी जन्म भूमि की माटी
गंगा का जल लेकर आना
हे! पथिक मेरी माटी के
दर्शन जो तुम पाओगे
धन्य धन्य तुम हो जाओगे |

4 comments:

  1. Sundartam rachna anita ji... bahut hi marmik barnan apne bachpan aur gaon ke yaadon ka..

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  2. bahut atmiy bhaw bhare hain..
    abtak baalpan k ghaw hare hain...
    man k kone me yaadon ka bandal bikhar gaya hai...
    hata kuhasa parwat se ghar aangan sab nikhar gaya hai........

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  3. बहुत सुन्दर कविता अनीता जी। माँ गंगा और अपने शहर की बहुत सुन्दर चित्रावलि, साधुवाद।

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