उस अजनबी के
इंतजार मे
बह गया नैनो से
मेरा काजल...
बैठी रहती हू
देहरी पर
उसके आने कि
बाट जोहती ....
भोर से साँझ तक
राह तकती ....
रोज़ जलाती दिया
उसके नाम का...
कि शायद वो अजनबी
दिए के उजाले में ....
अपने कदमो के निसा
ढूँढते हुए वापिस आ जाये
और मेरा इंतजार
ख़त्म हो ....
Bahut umda likhti hain aap...achchha laga...
ReplyDeletebahut sunder likha hai.
ReplyDeleteshubhkamnayen
bahut badiya!
ReplyDeleteअजनबी के "इंतजार" में व्याप्त व्याकुलता का चित्रण बहुत नायाब है.....अनिता जी !
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