Friday 1 April 2011



ऐ वक्त 



ऐ वक़्त मुझे न रोकना
मैं तुम्हारे साथ आ रही हूँ.
ऐ वक़्त मुझे न समझना
मैं तुम्हे समझ रही हूँ.
ऐ वक़्त मुझे न छोड़ना
मै चलने कि कोशिश कर रही हूँ.
ऐ वक़्त मुझे न रुलाना
मै हंसने कि कोशिश कर रही हूँ.
ऐ वक़्त मुझे वक़्त देना
मै अपने आप को बदल रही हूँ.
ऐ वक़्त मेरे साथ रहना
मै तुम्हारे साथ ही आ रही हूँ.
ऐ वक्त जरा ठहरना
मैं कुछ तलाश रही हूँ.
ऐ वक्त जरा रुकना
मैं जरा थक सी  गयी हूँ.
ऐ वक्त जरा पढ़ना
मैं कुछ लिखने लगी हूँ.
ऐ वक्त जरा चुप रहना
मैं जरा कहने लगी हूँ.
ऐ वक्त कभी संभलो
मैं बिखरने लगी हूँ.
कभी मेरी भी सुनना
हरदम तुम्हारी सुनती हूँ
कभी समय दो कभी रुको
जरा कुछ रचने बसने लगी हूँ.

1 comment:

  1. संवेदना से भरपूर बेहतरीन रचना ! बहार जैसे पतझड़ बीतने के बाद दरख्तों पर आ जाती है ! मानव जीवन में अवसान ही उसकी नियति में होता है ! सुन्दर रचना ! बधाई

    ReplyDelete